देश प्रदेश की दीवारों को लांघकर

 देश प्रदेश की दीवारों को लांघकर 


ज़िंदगी में सबसे बड़ी अगर कोई प्रतिस्पर्धा है तो वो बस खुद से ही है ! सच माने तो खुद से ज़्यादा हमें इस सृष्टि में कोई नहीं जानता ! खुद की नज़रों में हम जो कुछ भी होते है , उसे आकार देने की कोशिश में बरसों बस यूं ही गुज़र जाते हैं ! हमारे मन-मस्तिष्क को हम बहुत बार उतना नहीं जान पाते जितना दुनिया के कुछ महान लोगों ने उनके अपने दिमाग़ को भीतर से जाना है !


 मानवीय वैचारिकी की जटिलताओं के दायरे हर एक विषय के अलग - अलग है ! भले ही वो दार्शनिकता या आध्यात्मिकता हो , गणितीय या भौतिकीय विषयों की जटिलताएं हो ! रसायनिकी, तार्किकता तथा कलाओं की कलिष्टतम जटिलताएं ही क्यों न हो ! जिन्हें कुछ विरले लोग ही सुलझा पाते है , वो लोग दुनिया में महानता की ओर धीरे - धीरे अग्रसर होते गए हैं ! जटिलताओं को सरलताओं में तब्दील करके , ऐसी विभुतियों के महान विचारों के आगे मन नतमस्तक सा होने लगता है । दुनिया में कुछ लोग ऐसे हुए हैं जिन्होंने वैश्विक समुदाय का नेतृत्व किया है , मैं सीधे शब्दों में कहूं तो देश -प्रदेश की दीवारों को लांघकर समूचे विश्व को या इस ब्रम्हांड को अपना मान कर उसके संरक्षण में उन महामानवों ने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया हैं। 


ऐसी महान हस्तियां जिन्होंने मानव समाज को जागृत किया है , अंधेरों से बाहर लाया है, अंधविश्वासों की कोठरियों को तोड़कर विश्वासों के सुर्योदय को लेकर आए है ! वो अपने सारे सुकून छोड़ कर मर मिट गए और यह जानते हुए भी कि दुनिया के एक बड़े हिस्से में अंधेरा कायम है ! उन्होंने पथ-प्रदर्शक बने रहना उचित समझा और अपने दिमाग़ों की सारी अराजकताओं को अपने नियंत्रण में कर शांति के सौंदर्य की ओर जनमानस को लेकर आए हैं । आज के एहसान फरामोश हम लोग उन्हें इस माहौल में भी भला कब याद कर पाते हैं ? 


दुनिया की जटिलताओं को जिन्होंने सुलझा कर हमारे जीवन को इतना आसान बनाने वाले उन अनाम बलिदानों को हम उतनी तवज्जो नहीं देते हैं और ना ही कभी वो हिम्मत कर पाते हैं तब मन में एक अजीब सी बैचेनी होने लगती है कि हम इंसान कहीं न कहीं ग़लत जा रहे हैं ।


विकास की मूरत हम धरती की सुरत बिगाड़ कर गढ़ने की कोशिश करते हैं और धरती की विकरालता जब मात्र एक पैंतरा ही अपनाती है तब हम फ़िर से यकायक गिड़गिड़ाने लगते हैं , हमने देखा है कुदरत के कहर में मानवीय क्रंदन को , हमारी बेबसी को , हम नीरे हाथ फैलाए कुदरत से गुहार लगाए जाते हैं कि हे ईश्वर अब तो बस रहम करो ! इस जीवमंडल के बहुत ही अजीब से प्राणी है हम मनुष्य , जो प्रकाश से कब अंधेरे की ओर मुड़ने लग जाते है, हमें कोई कुछ पता ही नहीं चलता ! हमें अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने से फुर्सत भी तो कहां मिलती हैं !


जीवन भी अब जीवनशैलियों में सिमटकर कर रह गया हैं , जो व्यक्ति जिस पैशन में रहेगा उसका दायरा भी कुछ उसके ईद -गिर्द ही रहने लगता हैं ,उसके बाहर झांकने का अब उसके पास समय ही नहीं बचा है । सिर्फ बाहर ही नहीं अंदर भी तो नहीं झांक पा रहे है हम ! बस कोरे खोखले पन का आयोजन लेकर हम कहते हैं कि हम आधुनिकता के पर्याय है जबकि हमारा समाज आगे बढ़ते- बढ़ते अचानक से पीछे मुड़कर पर बहुत पीछे जाना चाहता है कि गुलामी की जंजीरों के वो दर्शन कर आएं ! समय की मांग है कि अब विचारों की क्रांति का आगाज़ हो । 


 रक्षित परमार , उदयपुर ( राजस्थान )


rakshitparmar2015@gmail.com

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