क्यों नफ़रत से भरी हुई है ये मानव प्रजाति?
क्यों नफ़रतों से भरी हुई है मानव प्रजाति (होमो सेपियंस ) ?
अगर आप गांवों से संबंध रखते होंगे तो धर्म का मतलब कुछ अलग ही है जैसे कि साधू संत , लोक कलाकारों को अनाज देना , उन्हें भोजन करवाना, कपड़े और थोड़े बहुत पैसे दे देना , पक्षियों को दाना , पानी के लिए कुण्ड और परिंडे लगाना , गांवों में हजारों की संख्या में चबूतरे बने हुए हैं , पशुओं में खासकर कुत्तों को रोटी खिलाना , गायों को चारा डालना , लोगों के दान पुण्य का सबसे ज़्यादा खर्च शायद इन दो प्रजातियों पर ही होता है। हाथी भी इनके इर्द गिर्द ही स्थान रखता है लेकिन हाथियों की संख्या भारत में दिनोंदिन अब कम होती जा रही हैं । यह एक अलग बात है कि वैसी ही दया हम अन्य पशुओं पर नहीं करते हैं। दरअसल वो प्रचलन में नहीं है इसलिए हो सकता है हम अन्य पशुओं के साथ ऐसा व्यवहार नहीं करते हो ! हम सबका दृष्टिकोण अलग -अलग हो सकता है,भारत के अलग -अलग राज्यों में संभावनाएं है कि वे अन्य जानवरों का भी कुछ इसी तरह सामाजीकरण कर पाएं हो लेकिन मनुष्य की सामाजिकता के ये दो जानवर अत्यंत नजदीक आएं है।
ग़ौरतलब है कि पशुपालकों के लिए वो पशु ज़्यादा महत्वपूर्ण हैं जिसे वे बरसों से पालते रहे हैं। राजस्थान के पशुपालक अधिकतर गाय, भेड़, बकरी , ऊंट , भैंस , गधे बहुतायत की संख्या में पालते हैं, मतलब इनको झुंड के रूप में पालने में विश्वास करते हैं। प्राचीन काल से ही मनुष्य एक शिकारी प्राणी रहा है। कहा जाता है कि हम मनुष्यों की इसी होमो सेपियंस प्रजाति ने अपने समय की दो समदर्शी प्रजातियों पिथेकैन्थ्रोपस इरेक्टस ( जावा मनुष्य को दुनिया का सबसे प्राचीन मानव द्विपद अवशेष स्वीकार किया गया है )और निएण्डरथल ( आज से लगभग 20,000-30,000 हजार वर्ष पूर्व में जिन्हें इसका पूर्वज कहा जाता था को पहले नष्ट करके अपनी सत्ता काबिज की थी। कालान्तर में इस मनुष्य का मानसिक और सामाजिक विकास होता गया है। इसी प्रजाति ने अपने जीवन जीने के भिन्न- भिन्न तरीके ईजाद किएं , जिसमें सबसे पहले वो जंगली वनस्पतियों का सेवन करता है, पर्यावरणीय प्रतिस्पर्धा और जीव संघर्ष के कारण वनस्पतियों के अभाव में अपने से कमजोर जीवों के शिकार का क्रम आंरभ करता है। सदियों के अंतराल में मानसिक विकास बढ़ते रहने से शिकार से पशुचारण की ओर रूख करता है । यह मनुष्य शुरू से ही नफ़रतों से भरा रहा है जैसा कि इसने अपने पूर्वजों को मौत के घाट उतार दिया था। पशुचारण के बाद इसने कृषि की ओर हाथ आजमाया। फिर उत्पादन प्रक्रिया से जुड़ने के बाद , भाषा के उद्भव , सेवा , व्यवसाय, शासन, प्रशासन, दर्शन , विज्ञान, अध्यात्म और अब जाने क्या- क्या करने में अलमस्त हैं।
आज जब हम दुनिया के घटनाक्रमों को देखते हैं , खबरों को पढ़ते हैं, सुनते है तब यहीं समझ पाते हैं कि यह दुनिया के हर हिस्से में एक- दूसरे को दबाने में लगा है । यह किसी की उन्नति को देखने का आदी नहीं है इसे किसी न किसी रूप में खीझ अवश्य होती है और यह लगातार षड्यंत्र करता है अपनी सत्ता काबिज करने के लिए । यह अपनी बुद्धिमत्ता को कभी -कभी सकारात्मक तो बहुत बार में यह नकारात्मक रूप में प्रयोग करता है। विश्व भर के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और धार्मिक तंत्रों को देखें तो हमें यह ज्ञात होता है कि हमारी यह प्रजाति कितनी निष्ठुर हैं , यह डार्विन के उस सिद्धांत की पुष्टि करने की हर संभव कोशिश करती है कि पर्यावरण में जो ताकतवर होगा वहीं ज़िंदा रह सकेगा । यह प्रजाति अन्य जीवों के साथ भी वो ही बेरहमी करती है जैसा कि यह प्रारंभ से ही अपने ही पूर्वज वंश के साथ करती आयी है। यह समूह में भी ज़्यादा समय के लिए एकजुट नहीं रह पाती है, आज नहीं तो कल फिर से यह उसी नफ़रत भरे अंदाज़ को कायम कर लेती है। वैचारिकी प्रदूषण के आज के इस माहौल में भी यह परिवार तक में एकजुट नहीं है । तथाकथित जातियां तो बहुत दूर की बात है । यह अपने परिवार में भी अपनी नफ़रतों को ज़िंदा रखती है। समय के साथ- साथ इसने अपने स्वार्थों को ओर भी मजबूत किया है और दुनिया के इस विशिष्ट ग्रह की शांति भंग करने के अनेकानेक उपद्रवी माहौल पैदा कर चुका है। यह प्रजाति हजारों किस्मों की वनस्पतियों और जीवों की विशिष्ट नस्लों को नष्ट कर चुकी है और यह अपनी ही प्रजाति के हजारों जनसंहारों को अंज़ाम भी दे चुकी है। इसकी क्रुरता की आह केवल यह भौतिक पर्यावरण ही देख पाता है , वो चीखें जो अनेक जीवों से कमोबेश निकलती ही नहीं का यह अत्यंत क्रुर तानाशाही हत्यारा प्रजाति का तमगा लिए बस अपने ही गुरूर के साथ सृष्टि के अनेक निर्दोषों को रोंदने पर आज भी उतारू हैं। लाखों बरसों के अंतराल से चलते आएं इस प्रजाति के गुणसूत्र और जीनों में भरी उस नफ़रत ने एक लम्बी यात्रा की है। यह मनुष्य रूपी जानवर(Omnivorous) आज भी जानवरों सा बर्ताव करते हुए दुनिया के अनेक हिस्सों में अत्याचार देखते हैं।
(यह लेखक के निजी विचार हैं ?)
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रक्षित परमार , उदयपुर ( राजस्थान)
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