आदिवासी बोलियां और भाषाओं पर बात करने से पहले हमें यह जान लेना बहुत जरूरी है की राजस्थान में कितनी जनजातियां हैं , जहां-जहां पर वो जनजातियां निवासरत है। राजस्थान में जो मुख्य आदिवासी जनजातियां हैं उनमें मीणा, भील गरासिया सहरिया , डामोर , कथोड़ी, सांसी (भरतपुर) । इनमें सहरिया किशनगंज और शाहबाद तहसीलों में पाई जाती है और यह आदिम जनजाति है । राजस्थान में भाषाओं का वर्गीकरण देखें तो एलपी टेस्सी टोरी ने भाषाओं को बहुत ही गंभीरतापूर्वक वर्गीकृत किया है । हमें यह जानना जरूरी है किस संभाग में कौनसी आदिवासी जनजातियां , किन किन बोलियों और भाषाओं को बोलती है और उनका मूल उत्पत्ति स्थान राजस्थान में कहां पर रहा है ? मीणा जनजाति की बात करें क्योंकि पूरे राजस्थान में सबसे ज्यादा मीणाओं की आबादी है । इतनी बड़ी जनजाति की कोई अपनी भाषा नहीं होगी या बोली नहीं होगी यह कहना गलत होगा , क्योंकि कोई जनजाति अपनी बोली और भाषा के बिना अपना साहित्य और संस्कृति आज तक कैसे लेकर आयी होगी ? मीणाओं की मीणी बोली या भाषा जिनमें ये आदिवासी जनजाति जिनमें उनके लोक संतों, लोक कवियों का बड़ा योगदान है। मीणा जनजाति के लोक साहित्य में मीणी भाषा के साक्ष्य उपलब्ध होते हैं। 
उसी प्रकार भील जनजाति पूरे राजस्थान में आबादी में दूसरे नंबर पर है और भीलों की अपनी एक बोली है जिसे हम भीली भाषा कहते हैं। राजस्थान के विशेषकर मारवाड़ , मेवाड़ और वागड़ में भीलो का बाहुल्य हैं । भीलों में भी उनकी अपनी अनेक उपजातियां हैं भील गरासिया , ढोली भील, डूंगरी भील, , मेवाड़ी राणा भील ,मेवाती भील , रावल भील , तड़वी भील , भागलिया , भिलाला , पावड़ा , वसावा , वसावे । हमने देखा है कि मारवाड़ और मेवाड़ में भीलों की आबादी ज्यादा है। इनकी अपनी संस्कृति है जो किसी बोली और भाषा के अभाव में हम तक कैसे पहुंच पाती सोचिए ज़रा ! इसलिए हमें यह मानना पड़ेगा भीली बोली और भाषा अस्तित्व में है लेकिन मुख्यधारा की भाषाओं के प्रभाव की वजह से अब तक इन विशिष्ट बोलियों और भाषाओं पर कोई काम नहीं हो पाया ? ना ही इन्हें प्राथमिकता मिली ? न ही इन पर अध्ययन व अनुसंधान हुए इस वजह से भी ये बोली और भाषाएं अति पिछड़ी हुई है। हम देखते हैं कि संस्कृत, हिंदी , पालि , प्राकृत, अंग्रेजी , अनेक प्रादेशिक भाषाएं जिनको को मान्यता मिली है लेकिन भीली , निमाडी , वागड़ी, रागडी, के अनुसंधान और विकास के लिए राजस्थान में अभी तक कोई ऐसा संगठन नहीं है , कोई ऐसी संस्था नहीं है जो इनके विकास , संरक्षण पर काम करता हो। इसके पीछे हम समाज और सरकारों का संकीर्ण दृष्टिकोण देख सकते हैं और समय की जरूरत है कि भीली जैसी इन बोलियां और भाषाओं पर त्वरित गति से काम हो इसमें अनुसंधान और विकास की अपार संभावनाएं आज निहित है । 
 गरासिया जनजाति राजस्थान के सिरोही जिले के आबूरोड और पिंडवाड़ा तहसीलों , उदयपुर के गोगुंदा व सायरा , झाडोल में प्रमुखता से पायी जाती है। इनमें में भी तीन तरह के गरासिया, एक भील गरासिया दूसरे राजपूत गरासिया, डूंगरी गरासिया , उनकी भी अनेक उपजातियां हैं। इनकी अपनी अपनी एक विशिष्ट शैली है लेकिन अभी तक उसके ऊपर भी कोई सांगठनिक और संस्थानिक काम सरकार या अन्य किसी भी संस्था के द्वारा नहीं हो पाया है 
 इस वजह से इन दुर्लभ बोलियां संकट के दौर से गुजर रही है। 
डामोर आदिवासी जनजाति राजस्थान के डूंगरपुर बांसवाड़ा में प्रमुख रूप से पाई जाती है ?इनकी अपनी बोली है जो अन्य आदिवासी जनजातियों की जो बोलियां है उनसे अलग है , विशिष्टता रखती है लेकिन अभी तक इसके ऊपर भी कोई संस्था या सरकार का ध्यान बिल्कुल ही नहीं है , यह समझे कि वो प्राथमिकता में है ही नहीं है । 
कथोड़ी जनजाति मुख्य रूप से उदयपुर के झाडोल और कोटडा और गिरवा में निवासरत है जिसके बारे में कहा जाता है कि इसका मूल उत्पत्ति स्थान महाराष्ट्र है क्योंकि यह जनजाति महाराष्ट्र में पाई जाती है और वहीं से यहां किसी जमाने में किसी प्रयोजन से लायी गई थी । इस जनजाति के लोग मुख्य रूप से कत्था बनाने का काम करते हैं। इनकी भी अपनी एक विशिष्ट बोली है जो अभी भी एक पहचान के लिए तरस रही है। इसके साहित्य के संरक्षण और विकास पर कोई भी पाठनिक काम नहीं हो पाया है।
 उसी प्रकार कोटा और बारा जिले की सीमाओं पर स्थित 2 तहसीलें किशनगंज और शाहबाद जिनमें सहरिया जनजाति जिसे आदिम जनजाति का दर्जा दिया गया है , निवासरत है उसकी एक विशिष्ट बोली है उस बोली के भाषाई करण , व्याकरण , उसके विकास और संरक्षण पर बहुत कुछ काम करने की आवश्यकताएं हैं । उनमें अपार संभावनाएं निहित है । प्रदेश के सभी साहित्यकारों के लिए एक चुनौती है , एक सवालहै कि क्या वह विलुप्त होती इन बोलियां के मूल्यों के संरक्षण और विकास में अपना योगदान दे सकते हैं ? क्या आज का साहित्यिक समाज इन बोलियों के संरक्षण और विकास में आगे आ सकते हैं?  
राजस्थान के दक्षिण पश्चिम जिलों की बात करें तो सिरोही , जालौर और पाली यहां निवासरत जनजातियों में भील, गरासिया और मीणा प्रमुख रूप से पाए जाते हैं और यहां देवड़ावटी , मारवाडी और गौडवाडी बोलियां का प्रचलन है।
 क्षेत्र के हिसाब से बात करें तो राठी जो कि मीणी भाषा का ही भाग है जोकि अलवर , राजगढ़ व दोसा इसका सीमांत क्षेत्र है। जगरोटी बोली बयाना हिंडौन सिटी , वजीरपुर तक के क्षेत्र में इस बोली का प्रचलन है, डांग करौली , करणपुर , कैला देवी सरमथुरा, बाड़ी , धौलपुर क्षेत्र में इस बोली का सर्वाधिक प्रयोग किया जाता है । 
जगरोटी और डांग अंचल की बोलियां ब्रजभाषा से सर्वाधिक प्रभावित रही है। बाड़ी , सवाई माधोपुर जिले की बामनवास तहसील , जाहिरा , रानीला गंगापुर ग्रामीण , उदई , शॉप अंचल में बोली का प्रयोग आदिवासी जनजातियों के द्वारा किया जाता है। तलहटी बोली जिसका प्रयोग बाडी, गंगापुर सवाई माधोपुर, हाडोती अंचलों से गिरे क्षेत्रों में प्रयोग किया जाता है, नागरचोल टोंक , सवाई माधोपुर क्षेत्र में नागरचाढ़ी या नागरचोल बोली का प्रयोग किया जाता है । तलहटी और नगर चाडी बोली में बहुत ही समानता है । 
रक्षित परमार, उदयपुर (राजस्थान)
(यह लेखक के निजी विचार है )
9783440685 
 
टिप्पणियाँ